श्राद्ध कैसे करते हैं?श्राद्ध करने की विधि

श्राद्ध कैसे करते हैं?श्राद्ध करने की विधि

श्राद्ध कैसे करते हैं? श्राद्ध कैसे करते हैं?श्राद्ध करने की विधि “ सनातन संस्कृति में दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा […]

श्राद्ध कैसे करते हैं?श्राद्ध करने की विधि

श्राद्ध कैसे करते हैं?

श्राद्ध कैसे करते हैं?श्राद्ध करने की विधि

“ सनातन संस्कृति में दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा पूर्वक किया गया यज्ञ अथवा कर्मकांड श्राद्ध है।”
श्राद्ध एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्मकांड है, जिसे सनातन धर्म में दिवंगत पूर्वजों की आत्मा की शांति और तृप्ति के लिए किया जाता है। इसे विधिपूर्वक करना आवश्यक है। यहाँ श्राद्ध करने की सामान्य विधि दी जा रही है:

श्राद्ध करने की विधि:

  1. तिथि का निर्धारण: श्राद्ध पितरों के निधन की तिथि या पितृपक्ष में किसी विशेष दिन (सामान्यतः अमावस्या, पूर्णिमा, अष्टमी, या श्राद्ध पक्ष के अन्य दिन) किया जाता है।
  2. पूजा स्थान की सफाई: घर के मंदिर या किसी पवित्र स्थान को साफ करें, जहाँ श्राद्ध की पूजा होगी।
  3. पवित्र स्नान: श्राद्धकर्ता (जो श्राद्ध कर रहा है) को स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए।
  4. आवश्यक सामग्री: श्राद्ध में इस्तेमाल होने वाली सामग्री इकट्ठा करें, जैसे कि जल, चावल, तिल, जौ, गाय का घी, वस्त्र, पान, सुपारी, पुष्प, माला, धूप, दीपक, और पिंडदान के लिए सामग्री।
  5. पिंडदान: श्राद्ध का मुख्य भाग पिंडदान है। इसमें जल, चावल और तिल से बने पिंडों का दान किया जाता है। ये पिंड पूर्वजों के प्रतीक माने जाते हैं।
    • कुशा, तिल और जल से बने पिंडों को बनाकर पितरों के नाम से अर्पित किया जाता है।
    • आमतौर पर तीन या चार पिंड बनाए जाते हैं।
  6. तर्पण: पिंडदान के बाद तर्पण किया जाता है। इसमें जल और तिल को मिलाकर अर्पित किया जाता है, साथ ही पितरों को स्मरण करके उन्हें संतुष्ट किया जाता है।
  7. ब्राह्मण भोज: श्राद्ध के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना महत्वपूर्ण माना जाता है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद उन्हें वस्त्र, दान-दक्षिणा दी जाती है।
  8. परिवार के भोज: श्राद्ध के अंत में परिवार के लोग भी भोजन ग्रहण करते हैं, लेकिन भोजन सात्विक और सादा होना चाहिए।
श्राद्ध में ध्यान रखने योग्य बातें:

श्राद्ध में ध्यान रखने योग्य बातें:

  • श्राद्ध सदा शुद्धता और श्रद्धा से किया जाना चाहिए।
  • श्राद्ध में अर्पित भोजन सात्विक और शाकाहारी होना चाहिए।
  • श्राद्ध का कार्य दिन के मध्य (अपराह्न) में किया जाता है।
  • श्राद्ध का मुख्य उद्देश्य दिवंगत आत्माओं की तृप्ति और शांति के लिए होता है, इसलिए इसे श्रद्धा और संकल्प के साथ करना चाहिए।

श्राद्ध के दौरान शांत और पवित्र मन से कर्मकांड करना अति महत्वपूर्ण होता है।

 श्राद्ध में तीन की संख्या महत्वपूर्ण है।

 श्राद्ध में तीन की संख्या महत्वपूर्ण है।

श्राद्ध में तीन की संख्या महत्वपूर्ण है। पितृ केवल पिता का सूचक नहीं है, बल्कि पितृ में पिता, पितामह और प्रपितामह तीनों आते हैं। व्यक्ति के लिए इन्हीं तीनों पूर्वजों के श्राद्ध का निर्देश है, क्रमशः वसु, रुद्र और आदित्य इनके साथ देवता माने गए हैं। इस प्रकार श्राद्ध करने से भूमि के देवता वसु, वायु के देवता रुद्र और आकाश के देवता आदित्य सभी संतुष्ट होते हैं। श्राद्ध में तीन पिंड बनाए जाते हैं और तीन ही कर्मों से श्राद्ध पूर्ण होता है, जो हैं पूजन, जलांजलि और यथाशक्ति दान। श्राद्ध से संतुष्ट पितृ अपनी संतति को तीन संपत्तियाँ प्रदान करते हैं – दीर्घायु, स्वर्ग अर्थात सुख सहित प्रतिष्ठा, और यश।”

पितृ पक्ष में पिता, पितामह और प्रपितामह तीनों आते हैं।

जल स्रोत का महत्त्व

जल स्रोत का महत्त्व

जल स्रोत का महत्त्व श्राद्ध कर्म में जल स्रोत का बहुत महत्त्व होता है। सनातन परंपरा में भारत में बहने वाली नदियाँ पिंडदान और श्राद्ध कर्म के लिए मान्य हैं। आप नदियों में अपने पितरों का पिंडदान इसलिए करते हैं क्योंकि नदियाँ समुद्र में जाकर मिलती हैं और समुद्र ही भगवान विष्णु का निवास है। पौराणिक मान्यता है कि इस प्रकार नदियों के माध्यम से हमारे पितर परमात्मा तक पहुँचते हैं और मुक्ति को प्राप्त होते हैं।”

गंगा, गंगा को भारत की सबसे पवित्र नदी माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार, गंगा का धरती पर अवतरण राजा भगीरथ के पूर्वजों की मुक्ति के लिए हुआ था। इसके तट पर पिंडदान से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।”

फल्गु, गया तीर्थ के समीप बहने वाली यह नदी फल्गु श्राद्ध कर्म के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। यहां हर साल देश-विदेश से लोग अपने पितरों की शांति के लिए श्राद्ध करने आते हैं।”

मंदाकिनी, मंदाकिनी नदी चित्रकूट पर्वत के पास बहने वाली यह नदी पवित्रतम नदियों में से एक है। भगवान श्री राम ने अपने पिता राजा दशरथ का पिंडदान इसी नदी के तट पर किया था।”

पुष्कर, सरोवर होने के बावजूद राजस्थान का पुष्कर तीर्थ पुराणों में मुक्ति के लिए श्रेष्ठ बताया गया है। मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने यहां यज्ञ किया था और इसके तट पर किए गए श्राद्ध कर्म पितरों की मुक्ति को सुनिश्चित करते हैं।”

श्राद्ध पक्ष अर्थात घर में उत्सव

श्राद्ध पक्ष अर्थात घर में उत्सव

श्राद्ध पक्ष अर्थात घर में उत्सव, यह पक्ष आश्विन मास में निर्धारित है इस विश्वास के साथ कि वर्षा काल में छाए बादलों के छंट जाने से आश्विन में आकाश स्वच्छ हो जाता है और सुदूर पितृ लोक में विराजमान पितृ जलांजलि ग्रहण करने धरती पर आते हैं। कुल 16 दिन के इस पक्ष को शास्त्रों में महालय कहा गया है। ‘मह’ अर्थात उत्सव और ‘आलय’ अर्थात घर, समग्र रूप से जिसका आशय है कि घर में उत्सव, पितरों के आगमन से हमारा घर उत्सव से भर जाता है। इसी कारण पितरों की संतुष्टि के लिए खीर आदि विविध पकवान बनाए जाते हैं। भारतीय समाज में श्राद्ध वैदिक काल से ही प्रचलित है। ऋग्वेद में पितरों को ‘पेंशन’ कहकर संबोधित किया गया है और उन्हें रात्रि के आकाश में चमकने वाले तारे कहा गया है। यह प्रतीक है कि यदि संतान के जीवन में दुख का अंधकार आए, तो पितृ कृपापूर्वक सुख का प्रकाश करते हैं।

निर्जल रहकर व्रत भी है श्राद्ध

निर्जल रहकर व्रत भी है श्राद्ध

निर्जल रहकर व्रत भी है श्राद्ध। श्राद्ध में पूर्वजों को प्रिय रहने वाले पकवान बनाने की प्रथा है, किंतु रामचरितमानस में एक अद्भुत विधान मिलता है। अयोध्याकांड के अनुसार, जब भरत के साथ चित्रकूट आए वशिष्ठ से श्री राम को अपने पिता दशरथ की मृत्यु का दुखद समाचार मिला, तो श्रद्धांजलि स्वरूप उस दिन उन्होंने निर्जल व्रत किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड में राम द्वारा पिता के लिए जलांजलि और पिंडदान का उल्लेख है। इसके अनुसार, राम ने पहले मंदाकिनी नदी में स्नान किया और फिर मिलाकर बनाए पिंड कुशाओं पर रखकर बोले, ‘महाराज, आजकल यही हम लोगों का आहार है, ससम्मान पूर्वक यह भोजन ग्रहण कीजिए।’ पिता के श्राद्ध के लिए वन में जो सामग्री सुलभ थी, राम ने उसी से श्राद्ध किया। यह संकेत है कि हमारे पास जो उपलब्ध हो, उसी से पूर्वजों का श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध में श्रद्धा ही प्रमुख है। राम ने पक्षीराज जटायु को भी देहांत के बाद जलांजलि दी थी, जो सिखाता है कि प्राणी मात्र के प्रति मनुष्य को वैसे ही संवेदना और श्रद्धा भाव रखना चाहिए जैसा कि हम अपने परिजनों के प्रति रखते हैं।”

देवताओं के भी देवता हैं पितृ।

देवताओं के भी देवता हैं पितृ। 

देवताओं के भी देवता हैं पितृ। महाभारत में श्राद्ध को देव और पितरों को देवताओं के भी देवता कहा गया है। संसार के इस सबसे बड़े महाकाव्य में अनेक प्रसंगों पर श्राद्ध के महत्त्व और विधान पर विस्तृत चर्चा है। इस प्रकार पितरों को चैतन्य माना गया है, जिन्हें अपनी संतति से कृतज्ञता की अपेक्षा रहती है। शायद इसी कृतज्ञता ज्ञापन का कर्मकांड है। अनुशासन पर्व के शिव-पार्वती संवाद में, पार्वती के प्रश्न का उत्तर देते हुए शिवजी कहते हैं, जहाँ श्राद्ध या पितृ पूजन हो, वहाँ मौन रहना चाहिए। वाणी और शरीर को संयमित रखकर किया गया श्राद्ध ही फलदायक होता है। महाभारत के स्त्री पर्व में एक प्रथम श्राद्ध पर्व है, जो पूर्वजों के प्रति कर्तव्य का बोध कराता है।”

हाथ उठाकर भी हो सकता है।

हाथ उठाकर भी हो सकता है।

हाथ उठाकर भी हो सकता है। श्राद्ध के अनेक प्रकार शास्त्रों में वर्णित हैं, प्रमुख रूप से तीन हैं: प्रतिदिन किया जाने वाला श्राद्ध ‘नित्य’, और कभी-कभार अथवा अवसर विशेष पर किया जाने वाला श्राद्ध ‘नियमितिक’ कहा गया है। किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाने वाले श्राद्ध को ‘काम्य’ कहते हैं। यजमान की यथाशक्ति इनमें तर्पण, पूजन, दान और ब्राह्मण भोज का विधान है। किंतु एक श्राद्ध अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो ऐसे व्यक्ति के लिए है जिसके पास कुछ नहीं है, मगर श्राद्ध की भावना रखता है। इसे ‘अरुण श्राद्ध’ कहा गया है। यदि किसी के पास दान और भोज के लिए धन न हो, तो किसी निर्जन स्थान पर जाकर पितरों का स्मरण कर केवल जलांजलि अर्पित कर दे। यहाँ तक कि जल भी न हो, तो अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर पितरों का नाम लेकर अपनी श्रद्धा भाव से अभिव्यक्त कर दे। ऐसा करने मात्र से श्राद्ध का विधान पूरा हो जाता है, क्योंकि श्राद्ध में स्पष्टता से अधिक श्रद्धा भाव को महत्त्व दिया गया है।”

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